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Wednesday, April 27, 2011

2जी स्पैक्ट्रम घोटाले में पत्रकारों की दलाली पर आश्चर्य क्यों?

पिछले दिनों 2जी स्पैक्ट्रम घोटाले में राजनेताओं व अफसरशाही के साथ पत्रकारों पर भी अंगूली उठी तो हर किसी को आश्चर्य हुआ कि क्या पत्रकार भी दलाली करते हैं? जाहिर है कि जिन लोगों पर और लोगों को बेपर्दा करने का जिम्मा हो, वे ही बेपर्दा होने लगें तो चौंकना स्वाभाविक सा है। जिन लोगों पर समाज को दिशा देने का दायित्व हो, वे ही भटकते दिखाई दें, तो अफसोस होगा ही।
दरअसल हमारी पूरी व्यवस्था ही ऐसी बन गई है कि हमें राजनेता और अफसरों का भ्रष्टाचार तो मंजूर है, मगर पत्रकार को तो ईमानदार ही चाहते हैं। पत्रकार ही नहीं, न्यायपालिका पर भी यही आस्था है कि वह पूरी सच्चाई बरतेगी। हम चाहते हैं कि ये दोनों तो सत्य के मार्ग पर चलें और बाकी सब को बेईमानी करने की छूट है। नेता और अफसर ही क्यों, आम आदमी का भ्रष्टाचार भी शिष्टाचार में शामिल किया जा चुका है। क्या यह सच नहीं है कि हम इस जुगत में रहते हैं कि छोटा-मोटा सरकारी काम भी आसानी से हो जाए, भले ही दस-बीस, सौ-पचास रुपए लग जाएं? क्या यह सच नहीं है कि रेल के डिब्बे में बिना रिजर्वेशन चढ़ जाने के बाद इस कोशिश में रहते हंै कि टीसी को खुश कर के बर्थ हासिल कर लें? क्या यह सच नहीं है कि मौका पडऩे पर बस में टिकट बचाने के लिए कंडक्टर की जेब गर्म करने को तैयार हो जाते हैं? क्या यह सच नहीं है कि बिना हैलमेट के पकड़े जाने पर रसीद कटवाने की बजाय ट्रेफिक सिपाही को सौ-पचास का नोट दे कर छूटना चाहते हैं? क्या यह सच नहीं है कि कोई शो होने पर हम टिकट लेने की बजाय इस कोशिश में रहते हैं कि किसी के जरिए पास मिल जाए? चलो, ये तो हुई साफ-साफ बेईमानी, मगर क्या यह सच नहीं है कि हम ड्राइविंग लाइसेंस बनवाने के लिए यातायात विभाग के चक्कर लगाने की बजाय किसी दलाल को दो-तीन गुना पैसे देने को तैयार हो जाते हैं? क्या हमने कभी सोचा है कि हम दलाल को जो पैसा दे रहे हैं, उसका हिस्सा कहां जाता है? और जिस के पास हिस्सा जाएगा, वह भला क्यों कोई लाइसेंस बिना कुछ लिए-दिए बनाने को तैयार होगा? क्या यह सच नहीं है कि व्यापारी हर वक्त इस जुगाड़ में रहता है कि किस प्रकार टैक्स को बचा ले? क्या यह सच नहीं है कि सरकारी कर्मचारी एक फाइल को आगे बढ़ाने पर कुछ बख्शीश की उम्मीद करता है? असल में हमारी रग-रग में इतना भ्रष्टाचार शामिल हो चुका है कि दुनियादारी को छोडिय़े मंदिर में भगवान के आसानी से दर्शन करने तक के लिए हम पुजारी को रिश्वत देने को तैयार हो जाते हैं।
इसी तथ्य को तनिक दार्शनिक अंदाज में सोचिए कि हम जब कोई काम पूरा होने की दुआ करते समय भगवान को अपनी हैसियत के मुताबिक राशि का प्रसाद चढ़ाने का वचन देते हैं, तो वह क्या है? क्या वह रिश्वत का ही एक रूप नहीं है? भगवान को भले ही इससे कोई फर्क नहीं पड़ता हो और वह केवल भावना को ही देखता हो, मगर हमारी सोच तो वही है न कि कोई भी काम रिश्वत दे कर करवा लो।
इस अर्थ प्रधान युग में हमारी मानसिकता ही जब ऐसी है, तो फिर कैसे उम्मीद करते हैं कि हमारे नेता और अफसर ईमानदारी से काम करेंगे? वे हमारे बीच में से ही तो निकल कर वहां पहुंचे हैं। आप सोचिए, जब एक डॉक्टर लाख-दो लाख रुपए की रिश्वत दे कर इच्छित स्थान पर पोस्टिंग करवाता है तो वह फिर उसकी वसूली प्राइवेट प्रैक्टिस करेगा ही। कमीशन देने वाली कंपनियों की दवा लिखेगा ही। ऐसी भ्रष्ट व्यवस्था से नेता भला कैसे बच सकता है? मेरे एक मित्र सरपंच रहे हैं। वे बताते हैं कि जब वे चुनाव लड़े तो अनेक मतदाताओं ने वोट तभी दिए, जबकि उन्हें दारू की एक बोतल व सौ-सौ रुपए भेंट किए थे। इस पर मेहनत की कमाई के एक लाख रुपए खर्च हो गए। और जब वे सरपंच बने तो उन्होंने उन्हीं मतदाताओं से किसी सर्टीफिकेट पर हस्ताक्षर करने के पचास-पचास रुपए लेना शुरू कर दिया। इस पर बड़ा हल्ला हुआ। लोगों ने कहा कि सरपंच भ्रष्ट है। तब उन्होंने मतदाताओं से सवाल किया कि जब आप वोट की एवज में रिश्वत लेते हैं तो उसकी भरपाई करने के लिए मैने पचास-पचास रुपए ले कर क्या अपराध कर दिया? इस घटना से साफ है कि हम भले ही भ्रष्ट आचरण करें, मगर नेता से यही उम्मीद करते हैं कि वह ईमानदार बना रहे। भला यह कैसे संभव है? यह एक हकीकत है कि एक एमएलए का चुनाव लडऩे के लिए कोई पच्चीस से पचास लाख रुपए खर्च हो जाते हैं तो जीतने के बाद एमएलए उसकी भरपाई कहां से करेगा?
असल में अफसरशाही व राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार को लगभग स्वीकार सा कर लिया है। अब हमें उम्मीद है कि इसी सिस्टम का पार्ट मीडिया ईमानदार बने रहे। वह ईमानदार कैसे बना रह सकता है? क्या आपको पता है कि दुनिया में केवल एक ही वस्तु ऐसी है जो अपनी लागत से कम कीमत पर बिकती है। जो अखबार आपको तीन रुपए में मिलता है, उस पर तकरीबन सात-आठ रुपए खर्च हो जाते हैं। तीन रुपए में से भी करीब डेढ़ रुपया एजेंसी को चला जाता है। जाहिर है कि इस घाटे की वसूली विज्ञापन और चंदे से होती है। और इसके लिए अखबार मालिकों को क्या-क्या नहीं करना पड़ता? जिस कंपनी से विज्ञापन या चंदा लेगा, क्या वह उसका भ्रष्टाचार उजागर करेगा? जिस सरकार से विज्ञापन लेगा, उसकी खामियों को बेपर्दा करेगा? इन सबके बाद भी भ्रष्टाचार उजागर हो रहा है तो उसकी वजह ये है कि हर कोई भ्रष्ट नहीं है। या फिर यूं कहिए कि सौ में से जिन दस को नहीं मिला है या नहीं लिया है, वे बेबाकी से उजागर करते हैं। या फिर जो सच्चाई बयां कर रहे होते हैं, वे असल में ब्लैकमेल कर रहे होते हैं। रहा सवाल पत्रकार का तो उसे यदि नौकरी करनी है तो मालिकी की पॉलिसी के अनुसार ही काम करना होगा। हाल ही जो 2जी स्पैक्ट्रम घोटाला उजागर हुआ है, उसमें चंद पत्रकारों के संलिप्त होने का सच इसी से जुड़ा हुआ है। हकीकत तो यह है कि दिल्ली में फिक्सिंग का सारा काम ही मीडिया कर रहा है। राजनीतिक पार्टियों के थिंक टैंक असल में पत्रकार ही हैं। पार्टी टिकट दिलवाने से लेकर दलबदल करवाने तक सारे काम पत्रकार कर रहे हैं। बाकी रहा सवाल न्यायपालिका के ईमानदार होने का, उस बारे में कुछ नहीं कहना। समय-समय पर न्यायालयों से ही वस्तुस्थिति सामने आ रही है। पिछले कुछ दिनों से तो ज्यादा ही टीका-टिप्पणियां आने लगी हैं।
कुल मिला कर हमने पूरी व्यवस्था ही ऐसी बना ली है कि भ्रष्टाचार  को भ्रष्टाचार न कह कर शिष्टाचार कहना ही बेहतर होगा। तभी तो हाल ही बात उठी थी कि क्यों न भ्र्रष्टाचार को कानूनी रूप दे दिया जाए। असल में हमने पूरी चादर को ही फाड़ डाला है, जिसमें केवल पैबंद लगाने से कुछ नहीं होने वाला। अगर साफ सुथरी व्यवस्था चाहिए तो पूरी चादर को ही बदलना होगा। 

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