Followers

Saturday, December 17, 2011

अभिव्यक्ति के नाम पर भड़ास की छूट दे दी जाए?

इन दिनों सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर लगाम कसे जाने की खबर पर हंगामा मचा हुआ है। खासकर बुद्धिजीवियों में अंतहीन बहस छिड़ी हुई है। लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की दुहाई देते हुए जहां कई लोग इसे संविधान की मूल भावना के विपरीत और तानाशाही की संज्ञा दे रहे हैं, वहीं कुछ लोग अभिव्यक्ति की आजादी के बहाने चाहे जिस का चरित्र हनन करने और अश्लीलता की हदें पार किए जाने पर नियंत्रण पर जोर दे रहे हैं।
यह सर्वविदित ही है कि इन दिनों हमारे देश में इंटरनेट व सोशल नेटवर्किंग साइट्स का चलन बढ़ रहा है। आम तौर पर प्रिंट और इलैक्ट्रॉनिक मीडिया पर जो सामग्री प्रतिबंधित है अथवा शिष्टाचार के नाते नहीं दिखाई जाती, वह इन साइट्स पर धड़ल्ले से उजागर हो रही है। किसी भी प्रकार का नियंत्रण न होने के कारण जायज-नाजायज आईडी के जरिए जिसके मन जो कुछ आता है, वह इन साइट्स पर जारी कर अपनी कुंठा शांत कर रहा है। अश्लील चित्र और वीडियो तो चलन में हैं ही, धार्मिक उन्माद फैलाने वाली सामग्री भी पसरती जा रही है। राजनीति और नेताओं के प्रति उपजती नफरत के चलते सोनिया गांधी, राजीव गांधी, मनमोहन सिंह, कपिल सिब्बल, दिग्विजय सिंह सहित अनेक नेताओं के बारे में शिष्टाचार की सारी सीमाएं पार करने वाली टिप्पणियां और चित्र भी धड़ल्ले से डाले जा रहे हैं। प्रतिस्पद्र्धात्मक छींटाकशी का शौक इस कदर बढ़ गया है कि कुछ लोग अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के बारे में भी टिप्पणियां करने से नहीं चूक रहे। ऐसे में केन्द्रीय दूरसंचार और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री कपिल सिब्बल ने जैसे ही यह कहा कि उनका मंत्रालय इंटरनेट में लोगों की छवि खराब करने वाली सामग्री पर रोक लगाने की व्यवस्था विकसित कर रहा है और सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट्स से आपत्तिजनक सामग्री को हटाने के लिए एक नियामक व्यवस्था बना रहा है तो बवाल हो गया। इसे तुरंत इसी अर्थ में लिया गया कि वे सोनिया व मनमोहन सिंह के बारे में आपत्तिजनक सामग्री हटाने के मकसद से ऐसा कर रहे हैं। एक न्यूज चैनल ने तो बाकायदा न्यूज फ्लैश में इसे ही हाइलाइट करना शुरू कर दिया, हालांकि दो मिनट बाद ही उसने संशोधन किया कि सिब्बल ने दोनों का नाम लेकर आपत्तिजनक सामग्री हटाने की बात नहीं कही है।
बहरहाल, सिब्बल के इस कदम की देशभर में आलोचना शुरू हो गई। बुद्धिजीवी इसे अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश के रूप में परिभाषित करने लगे, वहीं मौके का फायदा उठा कर विपक्ष ने इसे आपातकाल का आगाज बताना शुरू कर दिया। हालांकि सिब्बल ने स्पष्ट किया कि सरकार का मीडिया पर सेंसर लगाने का कोई इरादा नहीं है। सरकार ने ऐसी वेबसाइट्स से संबंधित सभी पक्षों से बातचीत की है और उनसे इस तरह की सामग्री पर काबू पाने के लिए अपने पर खुद निगरानी रखने का अनुरोध किया, लेकिन सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट्स के संचालकों ने इस बारे में कोई ठोस जवाब नहीं दिया। उनका तर्क ये था कि साइट्स के यूजर्स के इतने अधिक हैं कि ऐसी सामग्री को हटाना बेहद मुश्किल काम है। अलबत्ता ये आश्वासन जरूर दिया कि जानकारी में आते ही आपत्तिजनक सामग्री को हटा दिया जाएगा।
जहां तक अभिव्यक्ति की आजादी का सवाल है, मोटे तौर पर यह सही है कि ऐसे नियंत्रण से लोकतंत्र प्रभावित होगा। इसकी आड़ में सरकार अपने खिलाफ चला जा रहे अभियान को कुचलने की कोशिश कर सकती है, जो कि लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए घातक होगा। लेकिन सवाल ये उठता है कि क्या अभिव्यक्ति की आजादी के मायने यह हैं कि फेसबुक, ट्विटर, गूगल, याहू और यू-ट्यूब जैसी वेबसाइट्स पर लोगों की धार्मिक भावनाओं, विचारों और व्यक्तिगत भावना से खेलने तथा अश्लील तस्वीरें पोस्ट करने की छूट दे दी जाए? व्यक्ति विशेष के प्रति अमर्यादित टिप्पणियां और अश्लील फोटो जारी करने दिए जाएं? किसी के खिलाफ भड़ास निकालने की खुली आजादी दे दी जाए? सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर इन दिनों जो कुछ हो रहा है, क्या उसे अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर स्वीकार कर लिया जाये?
चूंकि ऐसी स्वच्छंदता पर काबू पाने का काम सरकार के ही जिम्मे है, इस कारण जैसे ही नियंत्रण की बात आई, उसने राजनीतिक लबादा ओढ लिया। राजनीतिक दृष्टिकोण से हट कर भी बात करें तो यह सवाल तो उठता ही है कि क्या हमारा सामाजिक परिवेश और संस्कृति ऐसी अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर आ रही अपसंस्कृति को स्वीकार करने को राजी है? माना कि इंटरनेट के जरिए सोशल नेटवर्किंग के फैलते जाल में दुनिया सिमटती जा रही है और इसके अनेक फायदे भी हैं, मगर यह भी कम सच नहीं है कि इसका नशा बच्चे, बूढ़े और खासकर युवाओं के ऊपर इस कदर चढ़ चुका है कि वह मर्यादाओं की सीमाएं लांघने लगा है। अश्लीलता व अपराध का बढ़ता मायाजाल अपसंस्कृति को खुलेआम बढ़ावा दे रहा है। जवान तो क्या, बूढ़े भी पोर्न मसाले के दीवाने होने लगे हैं। इतना ही नहीं फर्जी आर्थिक आकर्षण के जरिए धोखाधड़ी का गोरखधंधा भी खूब फल-फूल रहा है। साइबर क्राइम होने की खबरें हम आए दिन देख-सुन रहे हैं। जिन देशों के लोग इंटरनेट का उपयोग अरसे से कर रहे हैं, वे तो अलबत्ता सावधान हैं, मगर हम भारतीय मानसिक रूप से इतने सशक्त नहीं हैं। ऐसे में हमें सतर्क रहना होगा। सोशल नेटवर्किंग की  सकारात्मकता के बीच ज्यादा प्रतिशत में बढ़ रही नकारात्मकता से कैसे निपटा जाए, इस पर गौर करना होगा।
-tejwanig@gmail.com

Thursday, December 8, 2011

खुद के गिरेबां में भी झांके टीम अन्ना

इसमें कोई दोराय नहीं है कि आर्थिक आपाधापी और भ्रष्ट राजनीति के कारण भ्रष्टाचार के तांडव से त्रस्त देशवासियों की टीम अन्ना के प्रति अगाध आस्था और विश्वास उत्पन्न हुआ है और आम आदमी को उनसे बड़ी उम्मीदें हैं, मगर टीम के कुछ सदस्यों को लेकर उठे विवादों से तनिक चिंता की लकीरें भी खिंच गई हैं। हालांकि कहने को यह बेहद आसान है कि सरकार जवाबी हमले के बतौर टीम अन्ना को बदनाम करने के लिए विवाद उत्पन्न कर रही है, और यह बात आसानी से गले उतर भी रही है, मगर मात्र इतना कह कर टीम अन्ना के लिए बेपरवाह होना नुकसानदेह भी हो सकता है। इसमें महत्वपूर्ण ये नहीं है कि किन्हीं विवादों के कारण टीम अन्ना के सदस्य बदनाम हो रहे हैं, बल्कि ये महत्वपूर्ण है कि विवादों के कारण भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़ा हुआ आंदोलन प्रभावित हो सकता है। आंदोलन के नेता भले ही अन्ना हजारे हों, मगर यह आंदोलन अन्ना का नहीं, बल्कि जनता का है। यह वो जनता है, जिसमें भ्रष्टाचार के खिलाफ गुस्सा है और उसे अन्ना जैसा नेता मिल गया है, इस कारण वह उसके साथ जुड़ गई है।
वस्तुत: जब से टीम अन्ना का आंदोलन तेज हुआ है, उसके अनेक सदस्यों को विवादों में उलझाने की कोशिशें हुई हैं। पुराने मामलों को खोद-खोद कर बाहर निकाला जा रहा है। साफ तौर पर यह बदले की भावना से की गई कार्यवाही प्रतीत होती है। लेकिन इसका ये मतलब भी नहीं है कि टीम अन्ना पर लगे आरोप पूरी तरह से निराधार हैं। जरूर कुछ न कुछ तो बात है ही। अरविंद केजरीवाल के मामले को ही लीजिए। यह सवाल जरूर वाजिब है कि उन पर बकाया की याद कई साल बाद और आंदोलन के वक्त की कैसे आई, मगर यह भी सही है कि केजरीवाल कहीं न कहीं गलत तो थे ही। और यही वजह है कि उन्होंने चाहे अपने मित्रों से ही सही, मगर बकाया चुकाया ही है। इसी प्रकार किरण बेदी पर हो आरोप लगा, वह भी आंदोलन में सक्रिय भागीदारी का प्रतिफल है, मगर उससे भी कहीं न कहीं ये बात तो उठी ही है कि किरण बेदी ने कुछ तो चूक की ही है, वरना उन्हें राशि लौटने की बात क्यों कहनी पड़ती। प्रशांत भूषण का विवाद तो साफ तौर पर आ बैल मुझे मार वाली कहावत चरितार्थ करता है। लोकतंत्र में हर व्यक्ति को अपना विचार रखने की आजादी है, मगर एक ओर जब पूरा देश टीम अन्ना को आदर्श मान कर आंदोलनरत थी, तब प्रशांत भूषण का कश्मीर के बारे में निजी विचार जाहिर करना बेमानी था ही, टीम अन्ना को मुश्किल में डालने वाला था। जाहिर तौर पर आज यदि प्रशांत भूषण को पूरा देश जान रहा है तो उसकी वजह है टीम अन्ना का आंदोलन, ऐसे में टीम अन्ना के प्रमुख प्रतिनिधि का निजी विचार अनावश्यक रूप से पूरी टीम के लिए दिक्कत का कारण बन गया। उससे भी बड़ी बात ये है कि यदि किसी एक सदस्य के कारण आंदोलन पर थोड़ा भी असर पड़ता है, तो यह ठीक नहीं है। अत: बेहतर ये ही होगा भी वे पूरा ध्यान आंदोलन पर ही केन्द्रित करें, उसे भटकाने वालों को कोई मौका न दें।
वस्तुत: टीम अन्ना के सदस्यों को यह सोचना होगा कि आज वे पूरे देश के एक आइडल के रूप में देखे जा रहे हैं, उनका व्यक्तित्व सार्वजनिक है, तो उन्हें अपनी निजी जीवन को भी पूरी तरह से साफ-सुथरा रखना होगा। लोग उनकी बारीक से बारीक बात पर भी नजर रख रहे हैं, अत: उन्हें अपने आचरण में पूरी सावधानी बरतनी होगी। जब उनका एक नार पूरे देश को आंदोलित कर देता है तो उनकी निजी बात भी चर्चा की विषय हो जाती है। टीम के मुखिया अन्ना हजारे को ही लीजिए। हालांकि वे मूल रूप से अभी जनलोकपाल बिल के लिए आंदोलन कर रहे हैं, मगर उनके प्रति विश्वास इतना अधिक है कि देश के हर ज्वलंत मुद्दे पर उनकी राय जानने को पूरा देश आतुर रहता है। तभी तो जैसे ही केन्द्रीय मंत्री शरद पवार को एक युवक ने थप्पड़ मारा तो रालेगणसिद्धी में मौजूद मीडिया ने उनकी प्रतिक्रिया भी जानने की कोशिश की। बेहतर तो ये होता कि वे इस पर टिप्पणी ही नहीं करते और टिप्पणी करना जरूरी ही लग रहा था तो इस घटना का निंदा भर कर देते, मगर अति उत्साह और कदाचित सरकार के प्रति नाराजगी के भाव के कारण उनके मुंह से यकायक ये निकल गया कि बस एक ही थप्पड़। हालांकि तुरंत बाद उन्होंने बयान को सुधारा, मगर चंद दिन बाद ही फिर पलटे और उसे जायज ठहराने की कोशिश करते हुए नए गांधीवाद की रचना करने लगे। उन्हें ख्याल में रखना चाहिए कि आज यदि वे पूज्य हो गए हैं तो उसकी वजह ये है कि उन्होंने गांधीवाद का सहारा लिया। विचारणीय है कि आज जब अन्ना हजारे एक आदर्श पुरुष और प्रकाश पुंज की तरह से देखे जा रहे हैं तो उनकी हर छोटी से छोटी बात को आम आदमी बड़े गौर से सुनता है। ऐसे में उनका एक-एक वाक्य सधा हुआ होना ही चाहिए। देखिए न, चंद लफ्जों ने कैसे अन्ना को परेशानी में डाल दिया। अव्वल तो उन्हें पहले केवल लोकपाल बिल पर ही ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। यदि सभी राष्ट्रीय मुद्दों और घटनाओं पर भी अपनी राय थोपने का ठेका लेंगे तो आंदोलन गलत दिशा में भटक सकता है।
बहरहाल, इन सारी बातों के बाद भी जहां तक आंदोलन का सवाल है, वह जिस पवित्र उद्देश्य को लेकर हो रहा है, उसके प्रति जनता पूरी तरह से समर्पित है, मगर टीम अन्ना को अपने व्यक्तिगत आचरण पर पूरा ध्यान रखना चाहिए। इससे विरोधियों को अनावश्यक रूप से हमले करने का मौका मिलता है। आज पूरा देश यही चाहता है कि आंदोलन कामयाब हो, मगर छोटी-छोटी बातों से अगर आंदोलन प्रभावित होता है तो यह जनता के साथ अन्याय ही कहलाएगा, जिसके सामने एक लंबे अरसे बाद आशा की किरण चमक रही है।
tejwanig@gmail.com

Monday, December 5, 2011

केन्द्र को हिला कर रख दिया मायावती ने

हाल ही उत्तरप्रदेश विधानसभा में मुख्यमंत्री सुश्री मायावती की बसपा सरकार ने राज्य को चार राज्यों में बांटने का प्रस्ताव पारित कर केन्द्र सरकार को हिला कर रख दिया है। हालांकि छोटे राज्यों का मुद्दा पहले भी गरमाता रहा है और उसकी वजह से कुछ राज्यों के टुकड़े भी किए गए हैं, मगर मायावती ने एक राज्य को चार हिस्सों में बांटने का प्रस्ताव पारित करवा एक नया संकट पैदा कर दिया है।
सर्वविदित ही है कि देश में पहले से कुछ राज्यों में विभाजन को लेकर आंदोलन हो रहे हैं। आन्ध्रप्रदेश से तेलंगाना अलग करने को लेकर लंबे अरसे से टकराव जारी है। वहा उग्र और भारी उठापटक वाला आंदोलन चल रहा है। महाराष्ट्र और कर्नाटक के बीच बेलगांव को लेकर चल रही खींचतान के कारण अनेक जानें जा चुकी हैं। ऐसे में जाहिर है कि मायावती के इस नए पैंतरे से अन्य प्रांतों में भी यह आग भड़क सकती है। हालांकि जैसे ही प्रस्ताव पारित हुआ तो देशभर के बुद्धिजीवी इसी बहस में उलझ गए कि राज्यों के पुनर्गठन व छोटे राज्यों के क्या लाभ-हानि होते हैं, मगर धरातल की सच्चाई ये है कि मायावती यह प्रस्ताव पूरी तरह राजनीति से प्रेरित है।
जहां तक इस मुद्दे के सैद्धांतिक पक्ष की बात है, पक्ष-विपक्ष दोनों के अपने-अपने तर्क हैं, जो अपनी-अपनी जगह सही ही प्रतीत होते हैं।  छोटे राज्यों की पैरवी करने वाले यह तर्क दे रहे हैं कि बड़े राज्य में कानून-व्यवस्था को संभालना बेहद कठिन होता है और सरकारों का ज्यादा समय कानून-व्यवस्था की समस्याओं से जूझने में ही खर्च होता है। और इसकी वजह से सरकारें विकास की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दे पातीं। उनका तर्क है कि छोटे राज्य में विकास करना आसान होता है, क्योंकि वहां सामान्य कामकाज की समस्याएं कम होती हैं, सभी जिलों पर पकड़ अच्छी होती है, इस कारण विकास पर ज्यादा ध्यान दिया जा सकता है। दूसरी ओर छोटे राज्यों के खिलाफ राय रखने वालों की मान्यता है कि छोटे राज्यों के सामने सदैव संसाधनों के अभाव की समस्या रहती है। ऐसे में वे या तो अपने निकटवर्ती राज्य से प्रभावित रहते हैं या केन्द्र सरकार के रहमो-करम पर निर्भर। केन्द्र पर निर्भरता के चलते उसकी अपनी स्वायत्तता प्रभावित होती है। ये तो हुई तर्क-वितर्क की बात, मगर धरातल पर जा कर देखें तो निर्णय करने में भारी असमंजस उत्पन्न होता है। यह सर्वविदित ही है कि छोटे राज्य मणिपुर, मेघालय, त्रिपुरा, मिजोरम राजनीतिक अस्थिरता से गुजरते रहते हैं और वे विकास के मामले में पिछड़ते जा रहे हैं। बिहार को काट कर बनाए गए झारखंड की बात करें तो वहां की हालत काफी खराब है। विकास करना तो दूर हर वक्त राजनीतिक अस्थिरता बनी रहती है। इसके ठीक विपरीत मध्यप्रदेश को काट कर बनाए गए छत्तीसगढ़ में पर्याप्त प्रगति हुई है। हालांकि इसके पीछे वहां की सरकार की कार्यकुशलता की दुहाई दी जाती है। बड़े राज्यों में विकास कठिन है, इस तर्क का समर्थन करने वाले उत्तरप्रदेश और जम्मू-कश्मीर का उदाहरण देते हैं। जम्मू-कश्मीर में अकेले कश्मीर घाटी में व्याप्त आतंकवाद की वजह से पूरे राज्य का विकास ठप पड़ा है। इसी वजह से कुछ लोग सुझाव देते हैं कि राज्य को जम्मू, कश्मीर और लद्दाख में बांट दिया जाए, ताकि कम से कम जम्मू व लद्दाख तो प्रगति करें। उधर गुजरात जैसा बड़ा राज्य प्रगति के ऐसे आयाम छू रहा है, जिसकी देश ही नहीं बल्कि विश्व में भी तारीफ हो रही है। वह एक आदर्श विकास मॉडल के रूप में उभर आया है। 
कुल मिला कर सवाल ये खड़ा होता है कि आखिर सही क्या है? छोटे राज्य का आकार तय करने का फार्मूला क्या हो? और उसका उत्तर ये ही है कि भौगोलिक स्थिति, संसाधनों और जनभावना को ध्यान में रख कर ही निर्णय किया जाना चाहिए। लेरिक सच्चाई इसके ठीक विपरीत है। इस मुद्दे को लेकर लगातार राजनीति होती है। राजनीतिक दल अपने-अपने हित के हिसाब से पैंतरे चलते हैं। उत्तप्रदेश की बात करें तो हालांकि मोटे तौर पर मायावती ने ध्यान तो जनता की मांग का रखा है, मगर उसमें भी इस बात का ध्यान ज्यादा रखा है कि उनकी पार्टी को ज्यादा से ज्यादा लाभ हो। अर्थात चार राज्य होने पर चारों में ही उनकी पार्टी की सरकार बने। और इसी चक्कर में कुछ जिलों के बारे में किया गया निर्णय साफ तौर पर अव्यावहारिक है। कांग्रेस व भाजपा सहित अन्य दल जानते हैं कि मायावती के इस पैंतरे से बसपा को ही ज्यादा फायदा होने वाला है। वे समझ रहे हैं कि चार राज्य तो होंगे जब होंगे, मगर चंद माह बाद ही होने जा रहे विधानसभा चुनाव में मायावती इसका सीधा-सीधा फायदा उठा सकती हैं। इस कारण वे जम कर विरोध कर रहे हैं। हालांकि वे भी छोटे राज्यों के पक्षधर तो हैं, मगर मायावती की चाल के आगे निरुतर हो गए हैं। उनके पास ऐतराज करने को सिर्फ ये है कि अगर मायावती को यह निर्णय करना ही था तो साढ़े चार साल तक क्या करती रहीं, ऐन चुनाव के वक्त ही क्यों निर्णय किया? अर्थात वे केवल राजनीतिक लाभ की खातिर ऐसा कर रही हैं। उनका दूसरा तर्क ये है कि जिस तरह से प्रस्ताव पारित किया गया, वह अलोकतांत्रिक है क्योंकि इस पर न तो जनता के बीच सर्वे कराया गया और न ही अन्य दलों से राय ली गई। आरोप-प्रत्यारोप के बीच तर्क भले ही कुछ भी दिए जाएं, मगर यह बिलकुल साफ है कि राज्यों के पुनर्गठन के मामले में सियासत ज्यादा हावी है और इसी कारण विकास के मौलिक सिद्धांत के नजरअंदाज होने की आशंका अधिक है।
इससे भी अहम पहलु ये है कि भले ही राज्यों का पुनर्गठन करना केन्द्र सरकार के हाथ में है, मगर देश की एकता व अखंडता की जिम्मेदारी के नाते मायावती ने उसके सामने एक संकट तो खड़ा कर ही दिया है। पहले से ही अनेक भागों में पनप रहे अलगाववाद को इससे बल मिलने की आशंका है। देखते हैं कि अब केन्द्र इस मामले में क्या रुख अख्तियार करता है।
tejwanig@gmail.com

Wednesday, October 19, 2011

संसद से ऊपर कैसे हो गए अन्ना हजारे?

उत्प्रेरक के रूप में राजनीति की रासायनिक प्रक्रिया तो कर रहे हैं, मगर खुद अछूआ ही रहना चाहते हैंहाल ही अन्ना हजारे की टीम के प्रमुख सिपहसालार अरविंद केजरीवाल ने यह कह कर एक नए विवाद को जन्म दे दिया है कि अन्ना संसद से भी ऊपर हैं और उन्हें यह अधिकार है कि वे अपेक्षित कानून बनाने के लिए संसद पर दबाव बनाएं। असल में वे बोल तो गए, मगर बोलने के साथ उन्हें लगा कि उनका कथन अतिशयोक्तिपूर्ण हो गया है तो तुरंत यह भी जोड़ दिया कि हर आदमी को अधिकार है कि वह संसद पर दबाव बना सके।
यहां उल्लेखनीय है कि अन्ना हजारे पर शुरू से ये आरोप लगता रहा है कि वे देश की सर्वोच्च संस्था संसद को चुनौती दे रहे हैं। इस मसले पर संसद में बहस के दौरान अनेक सांसदों ने ऐतराज जताया कि अन्ना संसद को आदेशित करने की कोशिश कर रहे हैं। उन्हें अथवा किसी और को सरकार या संसद से कोई मांग करने का अधिकार तो है, मगर संसद को उनकी ओर से तय समय सीमा में बिल पारित करने का अल्टीमेटम देने का अधिकार किसी को नहीं है। इस पर प्रतिक्रिया में टीम अन्ना यह कह कर सफाई देने लगी कि कांग्रेस आंदोलन की हवा निकालने अथवा उसकी दिशा बदलने के लिए अनावश्यक रूप से संसद से टकराव मोल लिए जाने का माहौल बना रही है। वे यह भी स्पष्ट करते दिखाई दिए कि लोकपाल बिल के जरिए सांसदों पर शिंकजा कसने को कांग्रेस संसद की गरिमा से जोड़ रही है, जबकि उनकी ऐसी कोई मंशा नहीं है। एक आध बार तो अन्ना ये भी बोले कि संसद सर्वोच्च है और अगर वह बिल पारित नहीं करती तो उसका फैसला उनको शिरोधार्य होगा। लेकिन हाल ही हरियाणा के हिसार उपचुनाव के दौरान  अन्ना हजारे के प्रमुख सहयोगी अरविंद केजरीवाल ने एक बार फिर इस विवाद को उछाल दिया है। वे साफ तौर पर कहने लगे कि अन्ना संसद से ऊपर हैं।
 अगर उनके बयान पर बारीकी से नजर डालें तो यह केवल शब्दों का खेल है। यह बात ठीक है किसी भी लोकतांत्रिक देश में लोक ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। चुनाव के दौरान वही तय करता है कि किसे सता सौंपी जाए। मगर संसद के गठन के बाद संसद ही कानून बनाने वाली सर्वोच्च संस्था होती है। उसे सर्वोच्च होने अधिकार भले ही जनता देती हो, मगर जैसी कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया है, उसमें संसद व सरकार को ही देश को गवर्न करने का अधिकार है। जनता का अपना कोई संस्थागत रूप नहीं है। जनता की ओर से चुने जाने के बिना किसी को भी यह अधिकार नहीं है कि वह अपने आपको जनता का प्रतिनिधि कहे। जनता का प्रतिनिधि तो जनता के वोटों से चुने हुए व्यक्ति को ही मानना होगा। यह बात दीगर है कि जनता में कोई समूह जनप्रतिनिधियों पर अपने अधिकारों के अनुरूप कानून बनाने की मांग करने का अधिकार जरूर है। यह साफ सुथरा सत्य है, जिसे शब्दों के जाल से नहीं ढंका जा सकता। इसके बावजूद केजरीवाल ने अन्ना को संसद से ऊंचा बता कर टीम अन्ना की महत्वाकांक्षा और दंभ को उजागर कर दिया है।
उसकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा तो इस बात से भी खुल कर सामने आ गई है कि राजनीति और चुनाव प्रक्रिया में सीधे तौर पर शामिल होने से बार-बार इंकार करने के बाद भी हिसार उपचुनाव में खुल कर कांग्रेस के खिलाफ प्रचार करने पर उतर आई। सवाल ये उठता है कि अगर वह वाकई राजनीति में शुचिता लाना चाहती है तो दागी माने जा रहे हरियाणा जनहित कांग्रेस के कुलदीप विश्नोई और इंडियन नेशनल लोकदल के उम्मीदवार अजय चौटाला को अपरोक्ष रूप से लाभ कैसे दे रही है? एक ओर वह इस उपचुनाव को आगामी लोकसभा चुनाव का सर्वे करार दे रही है, दूसरी अपना प्रत्याशी उतारने का साहस नहीं जुटा पाई। अर्थात वे रसायन शास्त्र के उत्प्रेरक की भांति राजनीति में रासायनिक प्रक्रिया तो कर रही है, मगर खुद उससे अलग ही बने रहना चाहती है। कृत्य को अपने हिसाब से परिफलित करना चाहती है, मगर कर्ता होने के साथ जुड़ी बुराई से मुक्त रहना चाहती है। इसे यूं भी कहा जा सकता है मैदान से बाहर रह कर मैदान पर वर्चस्व बनाए रखना चाहती है। अफसोसनाक पहलु ये है कि इस मसले पर खुद टीम अन्ना में मतभेद है। टीम के प्रमुख सहयोगी जस्टिस संतोष हेगडे एक पार्टी विशेष की खिलाफत को लेकर मतभिन्नता जाहिर कर चुके हैं। इसी मसले पर क्यों, कश्मीर पर प्रशांत भूषण के बयान पर हुए हंगामे के बाद अन्ना व उनके अन्य साथी उससे अपने आपको अलग कर रहे हैं।
कुल मिला कर अन्ना हजारे का छुपा एजेंडा सामने आ गया है। राजनीति और सत्ता में आना भी चाहते हैं और कहते हैं कि हम राजनीति में नहीं आना चाहते। असल में वे जानते हैं कि उनको जो समर्थन मिला था, वह केवल इसी कारण कि लोग समझ रहे थे कि वे नि:स्वार्थ आंदोलन कर रहे हैं। ऐसे में जाहिर तौर पर जो जनता उनको महात्मा गांधी की उपमा दे रही थी, वही उनके ताजा रवैये देखकर उनके आंदोलन को संदेह से देख रही है। देशभक्ति के जज्बे साथ उनके पीछे हो ली युवा पीढ़ी अपने आप को ठगा सा महसूस कर रही है।
-tejwanig@gmail.com

Thursday, October 6, 2011

तब क्यों छुड़वाया था पाक यात्रियों को आडवानी ने?


हाल ही भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश उपाध्यक्ष तथा पूर्व सांसद औंकार सिंह लखावत व जिलाध्यक्ष व पूर्व सांसद रासासिंह रावत सहित विधायक द्वय प्रो. वासुदेव देवनानी व श्रीमती अनिता भदेल ने अजमेर में बिना अनुमति के पाकिस्तान के वाणिज्य मंत्री के सभा करने पर कड़ा ऐतराज करते हुए दोषियों के विरुद्ध कड़ी कार्यवाही के साथ केन्द्रीय गृहमंत्री पी. चिदम्बरम तथा राज्य के गृहमंत्री शान्ति धारीवाल के इस्तीफे की मांग की है। जैसा प्रकरण है, उनकी मांग बिलकुल जायज है। बेशक अजमेर में अवैधानिक तथा सुरक्षा नियमों के विपरीत हुई पाक वाणिज्य  मंत्री मकदूम अमीन फहीम की सभा कराने तथा इसमें सीमावर्ती जिलों से हजारों की तादाद में लोगों को लाने की कार्यवाही राष्ट्र की सुरक्षा के लिए खतरा है, मगर सवाल ये उठता है क्या भाजपा नेता दोहरा मापदंड अपना  रहे हैं?
पाठकों को याद होगा कि काफी दिन पहले तीर्थराज पुष्कर में बिना वीजा के घूमते पकड़े गए पाकिस्तान के सिंध प्रांत के 66 हिंदू तीर्थ यात्रियों को कथित रूप से लालकृष्ण आडवाणी ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर बिना किसी कार्यवाही के छुड़वा दिया। इतना ही नहीं उन्हें आगे की यात्रा भी जारी रखने की इजाजत दिलवा दी थी। कुछ हिंदूवादी संगठनों व भाजपा विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी के आग्रह पर आडवाणी के इस प्रकार दखल करने से एक नई बहस छिड़ गई थी।
हुआ यूं था कि जैसे ही पाकिस्तान के सिंधी तीर्थयात्रियों के बिना वीजा पुष्कर में पकड़े जाने की सूचना आई, हिंदूवादी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व भारतीय सिंधु सभा के पदाधिकारी सक्रिय हो गए। उन्होंने पुष्कर पहुंच कर सीआईडी के अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक गजानंद वर्मा पर दबाव बनाया कि उन्हें बिना किसी कार्यवाही के छोड़ दिया जाए, क्योंकि वे हिंदू तीर्थयात्री हैं। वर्मा ने उनकी एक नहीं सुनी, उलटे उन्हें डांट और दिया। बहरहाल उन्हें पाक तीर्थ यात्रियों से मिलने और उनकी सेवा-चाकरी करने छूट जरूर दे दी। जब हिंदूवादी संगठनों और विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी को लगा कि स्थानीय स्तर पर दबाव बनाने से कुछ नहीं होगा, उन्होंने ऊपर संपर्क किया। आडवाणी को फैक्स किए और गृह मंत्रालय से भी इस मामले में नरमी बरतने का आग्रह किया। इस पर भी जब दाल नहीं गली तो पाक जत्थे में एक प्रभावशाली व्यक्ति ने भी अपने अहमदाबाद निवासी समधी के जरिए आडवाणी से मदद करने का आग्रह किया। अहमदाबाद निवासी उस व्यापारी के आडवाणी से करीबी रिश्ते होने के कारण आखिरकार उन्हें मशक्कत करनी पड़ी। जानकारी के मुताबिक आडवाणी ने अपने स्तर पर केन्द्र व राज्य के अधिकारियों से संपर्क साधा और पाक तीर्थयात्रियों को बेकसूर बता कर उन्हें छोडऩे का आग्रह किया। भारी दबाव में आखिरकार सीआईडी मुख्यालय को उन्हें बिना कोई कार्यवाही किए आगे की यात्रा के लिए जाने की इजाजत देनी पड़ी।
उसी के अनुरूप सीआईडी पुलिस के अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक गजानंद वर्मा को यह रिपोर्ट देनी पड़ी कि तीर्थ यात्रियों ने भूल से वीजा नियमों का उल्लंघन किया है और ट्रेवल एजेंसी संचालकों ने उन्हें इस बारे में जानकारी नहीं दी थी, मगर जिस तरह घटनाक्रम घूमा, उससे स्पष्ट है कि तीर्थयात्री जानते थे कि वे वीजा में उल्लेख न होने के बावजूद पुष्कर का भ्रमण कर रहे हैं। इसकी पुष्टि इस बात से होती है कि जत्थे में से एक यात्री ने यहां मीडिया को बताया था कि उनका पुष्कर यात्रा का कोई कार्यक्रम नहीं था, लेकिन जब उन्हें मुनाबाव में पता लगा कि पुष्कर भी एक प्रमुख तीर्थस्थल है तो मुनाबाव में भारतीय अधिकारियों ने कहा कि वीजा में पुष्कर का अलग से उल्लेख करने की जरूरत नहीं है, वे चाहें तो खाना खाने के बहाने से वहां कुछ देर घूम सकते हैं। उस यात्री ने ही दबाव बनाया था कि उन्हें मुनाबाव में भारतीय अधिकारियों ने गुमराह किया था, वरना वे पुष्कर में नहीं उतरते।
बहरहाल, सीआईडी के नरम रुख की चर्चा इस कारण उठी है क्योंकि पिछले उर्स मेले के दौरान चार पाक जायरीन भी इसी तरह बिना वीजा के पुष्कर गए और वहां ब्रह्मा मंदिर में प्रवेश करते हुए पकड़े गए तो उनके खिलाफ सीआईडी की ओर से ब्लैक लिस्टेड करने की सिफारिश की गई थी। तब सवाल ये भी उठाया गया था कि यदि भारत के हिंदू राष्ट्रीयता को छोड़ कर पाकिस्तान के हिंदुओं के प्रति सोफ्ट कॉर्नर रखते हैं तो यदि भारत के मुसलमान कभी पाकिस्तान के मुस्लिमों के प्रति सोफ्ट कॉर्नर रखते हैं तो उसमें ऐतराज क्यों किया जाता है? यानि कि धर्म निश्चित रूप से राष्ट्रों की सीमा से बड़ा है।
उससे भी बड़ी बात ये है कि एक ओर तो भाजपा बिना अनुमति के पाक मंत्री की सभा होने पर ऐतराज करती है, दूसरी ओर बिना बीजा के पुष्कर आए हिंदू पाकिस्तानियों के प्रति नरम रुख रखती है। सही क्या है और गलत क्या, यह पाठक ही तय कर सकते हैं।
tejwanig@gmail.com

Thursday, September 8, 2011

विवादों से घिरते जा रहे हैं स्वामी अग्निवेश


हाल ही अन्ना हजारे की टीम से अलग हुए स्वामी अग्निवेश एक बार फिर विवादों से घिरने लगे हैं। वस्तुस्थिति तो ये है कि उनकी विश्वसनीयता ही संदिग्ध हो गई है। अन्ना की टीम में रहने के दौरान भी कुछ लोग उनके बारे में अलग ही राय रखते थे। सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर उनके बारे में अंटशंट टिप्पणियां आती रहती थीं, लेकिन जैसे ही वे अन्ना से अलग हुए हैं, उनके बारे में उनके बारे में सारी मर्यादाएं ताक पर रख कर टीका-टिप्पणियां होने लगी हैं। हालत ये है कि आजीवन सामाजिक क्षेत्र में काम करने का संकल्प लेने वाले अग्निवेश को अब कांगे्रस का एजेंट बन कर सियासी दावपेंच चलाने में मशगूल बताया जा रहा है।
असल में स्वामी अग्निवेश मूलत: अन्ना हजारे की टीम में शामिल नहीं थे। वैसे भी उनका अपना अलग व्यक्तित्व रहा है, इस कारण अन्ना हजारे के आभामंडल को पूरी तरह से स्वीकार किए जाने की कोई संभावना नहीं थी। कम से कम अरविंद केजरीवाल व किरण बेदी की तरह अन्ना हजारे का हर आदेश मानने को तत्पर रहने की तो उनसे उम्मीद भी नहीं की जा सकती थी। सामाजिक क्षेत्र में पहले से सक्रिय स्वामी अन्ना से जुड़े ही एक मध्यस्थ के रूप में थे। वे उनकी टीम का हिस्सा थे भी नहीं, मगर ऐसा मान लिया गया था कि वे उनकी टीम में शामिल हो गए हैं। और यही वजह रही कि उनसे भी वैसी ही उम्मीद की जा रही थी, जैसी कि केजरीवाल व किरण से की जा सकती है।
जहां तक मध्यस्थता का सवाल है, उसमें कोई बुराई नहीं है। मध्यस्थ का अर्थ ही ये है कि जो दो पक्षों में बीच-बचाव करे और वह दोनों ही पक्षों में विश्वनीय हो। तभी तो दोनों पक्ष उसके माध्यम से बात करने को राजी होते हैं। मगर समस्या तब उत्पन्न हुई, जब इस बात की जानकारी हुई कि वे पूरी तरह से कांग्रेस का साथ देते हुए मध्यस्थता कर रहे हैं तो अन्ना व उनकी टीम को ऐतराज होना स्वाभाविक था। जैसा कि आरोप है, वे तो अन्ना की टीम को ही निपटाने में जुट गए थे। जाहिर तौर पर उनकी यह हरकत अन्ना टीम सहित उनके सभी समर्थकों को नागवार गुजरी। बुद्धिजीवियों में मतभेद होना स्वाभाविक है, मगर यदि मनभेद की स्थिति आ जाए तो संबंध विच्छेद की नौबत ही आती है। कदाचित कुछ मुद्दों पर स्वामी अन्ना से सहमत न हों, मगर उन्हीं मुद्दों को लेकर अन्ना के खिलाफ काम करना कत्तई जायज नहीं ठहराया जा सकता। संतोष हेगड़े को ही लीजिए। उनके भी कुछ मतभेद थे, मगर उन्होंने पहले ही स्पष्ट कर दिया था। उनको लेकर कोई राजनीति नहीं कर रहे थे।
जैसी कि जानकारी है, अन्ना टीम को पता तो पहले ही लग गया था कि स्वामी क्या कारस्तानी कर रहे हैं, मगर आंदोलन के सिरे तक पहुंचने से पहले वह चुप रहने में ही भलाई समझ रही थी। जानती थी कि अगर मतभेद और विवाद पहले ही उभर आए तो परेशानी ज्यादा बढ़ जाएगी। और यही वजह रही कि जब अन्ना का आंदोलन एक मुकाम पर पहुंच गया और उसकी सफलता का जश्न मनाया जा रहा था तो दूसरी ओर इस बात की समीक्षा की जा रही थी कि कौन लंका ढ़हाने के लिए विभीषण की भूमिका अदा कर रहा है। उसमें सबसे पहले नाम आया स्वामी अग्निवेश का। इसी सिलसिले में उनका का एक कथित वीडियो यूट्यूब पर डाल दिया गया। जिससे यह साबित हो रहा था कि वे थे तो टीम अन्ना में, मगर कांग्रेस का एजेंट बन कर काम कर रहे थे। वीडियो में उन्हें कथित रूप से हजारे पक्ष को पागल हाथी की संज्ञा देते हुए दिखाया गया है। वीडियो में वह कपिल जी से यह भी कह रहे हैं कि सरकार को सख्ती दिखानी चाहिए ताकि कोई संसद पर दबाव नहीं बना सके।
जहां तक वीडियो की विषय वस्तु का प्रश्न है, स्वयं अग्निवेश भी स्वीकार कर रहे हैं कि वह गलत नहीं है, मगर उनकी सफाई है कि इस वीडियो में वे जिस कपिल से बात कर रहे हैं, वे केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल नहीं हैं, बल्कि हरिद्वार के प्रसिद्ध कपिल मुनि महाराज हैं। बस यहीं उनका झूठ सामने आ गया। मौजूदा इंस्टंट जर्नलिज्म के दौर में मीडिया कर्मी कपिल मुनि महाराज तक पहुंच गए। उन्होंने साफ कह दिया कि उन्होंने पिछले एक वर्ष से अग्निवेश से बात ही नहीं की। साथ ये भी बताया कि हरिद्वार में उनके अतिरिक्त कोई कपिल मुनि महाराज नहीं है। यानि कि यह स्पष्ट है कि स्वामी सरासर झूठ बोल रहे हैं। जाहिर तौर पर इस प्रकार की हरकत को धोखाधड़ी ही कहा जाएगा।
जहां तक अग्निवेश का अन्ना टीम छोडऩे का सवाल है, ऐसा वीडियो आने के बाद ऐसा होना ही था, मगर स्वयं अग्निवेश का कहना है कि वे केजरीवाल की शैली से नाइत्तफाकी रखते थे, इस कारण बाहर आना ही बेहतर समझा। इस बात में तनिक सच्चाई भी लगती है, क्यों कि अन्ना की टीम में दूसरे नंबर के लैफ्टिनेंट वे ही हैं। कुछ लोग तो यहां तक भी कहते हैं कि अन्ना की चाबी भी केजरवाल ही हैं। बहरहाल, दूसरी ओर केजरीवाल का कहना है कि स्वामी इस कारण नाराज हो कर चले गए क्योंकि आखिरी दौर की बातचीत में अन्ना की ओर से उन्हें प्रतिनिधिमंडल में शामिल नहीं किया गया। ऐसा प्रतीत होता है कि अन्ना को उनके बारे में पुख्ता जानकारी मिल चुकी थी, इसी कारण उनसे थोड़ी दूरी बनाने का प्रयास किया गया होगा।
यहां यह उल्लेखनीय है कि हजारे पहली बार अनशन पर बैठे तो स्वामी ही मध्यस्थ के रूप में आगे आए थे, मगर उनकी भूमिका पर संदेह होने के कारण ही उन्हें लोकपाल विधेयक का ड्राफ्ट बना कर सरकार से बात करने वाली टीम में शामिल नहीं किया गया, जब कि स्वामी ने बहुत कोशिश की कि उन्हें जरूर शामिल किया जाए। बस तभी से स्वामी समझ गए कि अब उनकी दाल नहीं गलने वाली है। इसी कारण जब हजारे ने 16 अगस्त से अनशन पर बैठने का फैसला किया तो अग्निवेश ने आलोचना की थी। अनशन शुरू होने से लेकर तिहाड़ जेल से बाहर आने तक स्वामी गायब रहे, मगर फिर नजदीक आने की कोशिश की तो अन्ना की टीम ने उनसे किनारा शुरू कर दिया।
खैर, यह पहला मौका नहीं कि उनकी ऐसी जलालत झेलनी पड़ी हो। इससे पूर्व आर्य समाज, जो कि उनके व्यक्तित्व का आधार रहा है, उस तक ने उनसे दूरी बना ली थी। ताजा मामले में भी आर्य समाज के प्रतिनिधियों ने उन्हें धोखेबाज बताते हुए सावधान रहने की सलाह दी है। माओवादियों से बातचीत के मामले में भी उनकी कड़ी आलोचना हो चुकी है। अब देखना यह है कि आगे वे क्या करते हैं? सरकार की किसी पेशकश को स्वीकार करते हैं या फिर से सामाजिक क्षेत्र में जमीन तलाशते हैं?
tejwanig@gmail.com

Wednesday, September 7, 2011

कोई एक पम्फ़लैट तक नहीं लिख पाता लेकिन बड़ा ब्लॉगर सारा इतिहास लिख देता है

बड़ा ब्लॉगर कमाता ज़रूर है। यह बड़े ब्लॉगर का मुख्य लक्षण है।
कोई नाम कमाता है, कोई इज़्ज़त कमाता है और कोई पैसा कमाता है।
कोई ईमानदारी से कमाता है और धोखाधड़ी से कमाता है।
कोई एक पम्फ़लैट तक नहीं लिख पाता लेकिन बड़ा ब्लॉगर सारा इतिहास लिख देता है। कोई अपनी किताब लिखकर बिना विमोचन के ही बांट कर धन्य हो जाता है लेकिन बड़ा ब्लॉगर अपनी एक किताब का दो दो बार विमोचन करा लेता है और वह भी दो दो राजधानियों में।
बड़े ब्लॉगर की बड़ी बात होती है।
‘एक से भले दो‘ की मिसाल सामने रखते हुए, वह अपने ही जैसा एक और पकड़ लेता है। बंगाल के तो जादूगर मशहूर हैं और दिल्ली के ठग भी एक ज़माने में काफ़ी मशहूर थे लेकिन बिहार के चोर ज़्यादा मशहूर नहीं हैं।
बहरहाल बंगाल के जादूगर भी बग़लें झांकने लगेंगे अगर दिल्ली का ठग और बिहार का चोर मिलकर काम करने पर आ जाएं तो...
और अगर ये ब्लॉगिंग में आ जायें तो बिना किताब छापे ही बेचकर दिखा दें और जो बड़े बड़े तीस मार खां बने फिरते हैं हिंदी ब्लॉगर, वे पैसे देंगे पहले और किताब उन्हें मिलेगी 4 माह बाद और वह भी 2 बार विमोचन होने के बाद।
जिस किताब का 2 बार विमोचन हो चुका हो, उसकी आबरू तो पहले ही तार तार कर दी गई है, अब उसमें क्या बचा है ?
कोई शरीफ़ आदमी तो उसे अपनी किताबों के साथ रखेगा नहीं और न ही कोई शरीफ़ किताब उसके पास रहने के लिए तैयार होगी।
ज़्यादातर किताबें बिना विमोचन की होती हैं।
उनका विमोचन बस पाठक ही करता है।